हम यहाँ सबसे प्रेम करने के लिए आए हैं

आज के अपने सत्संग में, संत राजिन्दर सिंह जी महाराज ने हमें हमारे सच्चे स्वरूप के बारे में और इस मानव चोले के वास्तविक उद्देश्य के बारे में समझाया। हम चाहे ख़ुद को शरीर, मन, और बुद्धि ही समझते रहते हैं, लेकिन असल में हम आत्मा हैं, परमात्मा का अंश हैं, जो प्रभु के पास वापस जाने के लिए तड़प रही है। प्रभु दिव्य सुंदरता के स्रोत हैं, महाराज जी ने फ़र्माया, और हम इस महान् सोते की ही बूँदें हैं। इसीलिए हमारे अंदर भी अतुलनीय सुंदरता मौजूद है।
अब यह हम पर है कि हम प्रेम, करुणा, अहिंसा, नम्रता, और सच्चाई के दैवी सद्गगुणों को अपने जीवन में धारण करें। तब जिस तरह ज़मीन पर बहती नदी अपने मार्ग में आने वाली सभी चीज़ों को पोषित करती चलती है, उसी तरह हम भी ख़ुद से मिलने वाले सभी लोगों को पोषित करते चलेंगे।
हम यहाँ सबसे प्रेम करने के लिए ही आए हैं, महाराज जी ने समझाया, और हम जहाँ भी जायें और जिससे भी मिलें, हमें प्रभु-प्रेम की ख़ुश्बू ही फैलानी चाहिए। लेकिन प्रभु के प्रेम को बाँटने के लिए हमें पहले स्वयं उसका अनुभव करना चाहिए। प्रभु का प्रेम, जो हमारे भीतर गहराई में दबा पड़ा है, तभी अनुभव किया जा सकता है जब हम अंतर्मुख हों। ध्यानाभ्यास की प्रक्रिया के द्वारा, हम अपने अपने ध्यान को बहारी दुनिया की हलचलों और आकर्षणों से हटाकर अपने अंतर में एकाग्र कर सकते हैं। जब हम इस दिव्य प्रेम का अनुभव करते हैं, तो हम निस्वार्थ भाव से अपने साथी इंसानों की सहायता करने लगते हैं, उनके बोझ को कम करने के लिए और सबकी ज़िन्दगी बेहतर बनाने के लिए योगदान देने लगते हैं। जब हम प्रेम देते हैं, संत राजिन्दर सिंह जी ने फ़र्माया, तो हमारे अंदर प्रेम का भंडार बढ़ता चला जाता है और हमारी आध्यात्मिक तरक्की तेज़ी से होती चली जाती है। इस सबकी शुरुआत तब होती है जब हम ध्यानाभ्यास के द्वारा अंतर में जाते हैं।